सय्यद की लौह-ए-तुर्बत | अल्लामा इक़बाल
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ऐ के तेरा मुर्ग़-ए-जाँ तार-ए-नफ़स में है असीर | ऐ के तेरी रूह का ताइर क़फ़स में है असीर
इस चमन के नग़मा पैराओं की आज़ादी तो देख | शहर जो उजड़ा हुआ था उसकी आबादी तो देख
फ़िक्र रहती है मुझे जिस की वो महफ़िल है यही | सब्र-ओ-इस्तक़लाल की खेती का हासिल है यही
संग-ए-तुर्बत है मिरा गर्वीदा-ए-तक़रीर देख
चश्म-ए-बातिन से ज़रा इस लोह की तहरीर देख
मुद्दआ तेरा अगर दुनिया में है तालीम-ए-दीं | तर्क-ए-दुनिया क़ौम को अपनी न सिखलाना कहीं
वा न करना फ़िरक़ा-बन्दी के लिए अपनी ज़ुबां | छुप के है बैठा हुआ हंगामा-ए-महशर यहाँ
वस्ल के असबाब पैदा हों तेरी तहरीर से | देख कोई दिल न दुःख जाये तेरी तक़रीर से
महफ़िल-ए-नौ में पुरानी दास्तानों को न छेड़
रंग पर जो अब न आएँ उन अफ़सानों को न छेड़
तू अगर कोई मुदाब्बिर है तो सुन मेरी सदा | है दिलेरी दस्त-ए-अरबाब-ए-सियासत का असा
अर्ज़-ए-मतलब से झिझक जाना नहीं ज़ेबा तुझे | नेक है नियत अगर तेरी तो क्या परवा तुझे
बन्दा-ए-मौमिन का दिल बीम-ओ-रिया से पाक है
क़ुव्वत-ए-फरमा-रवा के सामने बेबाक है
हो अगर हाथों में तेरे ख़ामा-ए-मौजिज़ रक़म | शीशा-ए-दिल हो अगर तेरा मिसाल-ए-जाम-ए-जम
पाक रख अपनी ज़ुबां तलमीज़-ए-रहमानी है तू | हो न जाये देखना तेरी सदा बे-आबरू
सोने वालों को जगा दे शेर के ऐजाज़ से
ख़िरमन-ए-बातिल जला दे शोला-ए-आवाज़ से
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व्याख्या:
इस कलाम के शीर्षक का अर्थ है "सर सय्यद के मज़ार का पत्थर". इस कलाम में अल्लामा इक़बाल ने जो कुछ लिखा है वो सर सय्यद का पैग़ाम है जो उनके मज़ार [पर लगे पत्थर] से जारी हुआ है और कुछ लोगों को हिदायत और नसीहत देना चाहता है जिनमें तीन लोग शामिल हैं:
१- आलिम अथवा विद्वान
२- सियासी लीडर अथवा राजनेता
३- अदीब/ शायर/ लेखक इत्यादि
सर सय्यद अहमद खान बहादुर भारत में 19वीं सदी के महान समाजसुधारक थे जिन्होंने उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ शहर में मुहम्मदन एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज की स्थापना की जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में उरूज को पहुंचा. इनका मूल नाम सय्यद अहमद था, सर, खान और बहादुर उनके एज़ाज़ी लक़ब (मानद उपाधियाँ) थे. सर सय्यद का मज़ार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सर सय्यद हॉल में है.
इस कलाम में चार बन्द (पद/ stanza) हैं जिनमे पहला बन्द सामान्य है और जो आलिम, नेता और अदीब -सभी पर लागू होता है जबकि बाद वाले तीन बन्द क्रमश: तीनों पर लागू होते हैं.
पहला बन्द:
ऐ के तेरा मुर्ग़-ए-जाँ तार-ए-नफ़स में है असीर | ऐ के तेरी रूह का ताइर क़फ़स में है असीर
इस चमन के नग़मा पैराओं की आज़ादी तो देख | शहर जो उजड़ा हुआ था उसकी आबादी तो देख
फ़िक्र रहती है मुझे जिस की वो महफ़िल है यही | सब्र-ओ-इस्तक़लाल की खेती का हासिल है यही
संग-ए-तुर्बत है मिरा गर्वीदा-ए-तक़रीर देख
चश्म-ए-बातिन से ज़रा इस लोह की तहरीर देख
अल्लामा इक़बाल कहते हैं कि ऐ विद्वानों, अदीबों और सियासी रहनुमाओं ! आपकी रूह जागरूक नहीं है. यह अपनी ख्वाहिशों और आराम-पसन्दी में गिरफ़्तार हैं. यह जो इदारा (शिक्षा-संस्थान) बनकर तैयार हुआ है इसमें पहले खुशहाली के तराने गाने वाले नहीं थे. यह उजड़ा शहर था लेकिन अब इसकी आबादी देखते ही बनती है. ज़िन्दगी भर मुझे जिस फ़िक्र ने खाया वो यही थी कि किस तरह में कौम को पस्ती के अँधेरों से निकालकर एक रोशन महफ़िल तैयार करूं जहाँ इल्म की रौशनी हो. मैंने बहुत सब्र और हिम्मत से काम लिया, बड़े-बड़े इम्तिहानों से नहीं डिगा! मेरे इस संयम और धैर्य की खेती यही इदारा है, मेरी ज़िन्दगी भर की यही कमाई है. ऐ आलिमों, अदीबों और सियासी रहनुमाओं ! मेरे मज़ार पर लगे इस पत्थर को अपने दिल की आँखों से देखो जो तुम्हे अपनी तरफ़ खींचना चाहता है ताकि तुमसे हमकलाम हो और कुछ बातें करे. तुम लोग अपने दिल की आंखे खोलकर उस तहरीर को देखो जो इस पर लिखी है.
शब्दार्थ:
तार-ए-नफ़स: बुरी ख्वाहिशों का पिंजरा असीर: मजबूर, लाचार रूह का ताइर: आत्मा का पंछी क़फ़स: पिंजरा / जाल चमन: उपवन / गार्डेन/ बग़ीचा नग़मा पैराओं: गीत गाने वाले लोग सब्र-ओ-इस्तक़लाल: संयम और धैर्य खेती का हासिल: नतीजा /परिणाम संग-ए-तुर्बत: कब्र का पत्थर गर्वीदा-ए-तक़रीर: तक़रीर की तरफ़ आकर्षित चश्म-ए-बातिन: मन की ऑंखें लोह की तहरीर: पत्थर पर अंकित शब्द
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दूसरा बन्द:
मुद्दआ तेरा अगर दुनिया में है तालीम-ए-दीं | तर्क-ए-दुनिया क़ौम को अपनी न सिखलाना कहीं
वा न करना फ़िरक़ा-बन्दी के लिए अपनी ज़ुबां | छुप के है बैठा हुआ हंगामा-ए-महशर यहाँ
वस्ल के असबाब पैदा हों तेरी तहरीर से | देख कोई दिल न दुःख जाये तेरी तक़रीर से
महफ़िल-ए-नौ में पुरानी दास्तानों को न छेड़
रंग पर जो अब न आएँ उन अफ़सानों को न छेड़
अल्लामा इक़बाल सबसे पहले आलिमों,दानिश्वरों और विद्वानों से कहते हैं कि ऐ आलिमों ! अगर आप दुनिया में सिर्फ मज़हब की तालीम आम करना चाहते हैं तो यह सही फ़ैसला नहीं है ! अपनी कौम को दुनिया की तालीम भी ज़रूर देना. यहाँ दुनिया की तालीम का मतलब आधुनिक विज्ञान, साहित्य इत्यादि से है. अल्लामा ने यह जुमला सर सय्यद के उस कथन से लिया है जिसमे उन्होंने कहा था कि अलीगढ़ कॉलेज में पढने वाले विद्यार्थी के एक हाथ में "क़ुरान" होगा और दूसरे हाथ में "आधुनिक विज्ञान" ! यहाँ कुरान का तात्पर्य धर्म की शिक्षा से है.
आगे हिदायत करते हैं कि याद रहे कि आप इल्म वाले हैं. आपको हर तरह की फिरका-बन्दी के ख़िलाफ़ रहना है और भूल कर भी फिरकों की हिमायत में अपनी ज़ुबान नही खोलना. क्योंकि यदि ज़ुबान खुल गयी तो लोगो में हंगामा हो जायेगा और फिर तालीम का मक़सद कुछ नहीं रहेगा सिवाय बहस और गिरोह-बन्दी के !
इसके विपरीत आपको "मिलाप" के मौक़े तलाशने होंगे ताकि आप यह जान जाएँ कि किस तरह लोगो को आपस में जोड़ें. याद रखिएगा कि आपकी तक़रीर से, आपके शब्दों से किसी का भी दिल न दुखे !
अब जो गुज़र चुका, उसको भूल जाना बहतर हैं क्यूँकि गढ़े मुर्दे उखाड़ने से कोई फाएदा नहीं. जो दास्ताने / किस्से अपना आकर्षण खो चुकी हैं उनको दोबारा जिंदा न करना और मुस्तक़बिल (भविष्य) पर ध्यान देना. ऐसा लगता है कि इस जगह अल्लामा 1857 के ग़दर की तकलीफ़ देने वाली बातों से आगे निकलकर भविष्य निर्माण की ओर ले जाना चाह रहे हैं ताकि मुल्क और कौम तरक्क़ी करें!
शब्दार्थ:
मुद्दआ: मक़सद, केंद्रबिंदु तालीम-ए-दीं: धर्म की शिक्षा / दीन की तालीम तर्क-ए-दुनिया: दुनियादारी को त्यागना क़ौम: राष्ट्र वा न करना: न खोलना फ़िरक़ा-बन्दी: फ़िरक़े बनाना हंगामा-ए-महशर: बहुत ज़्यादा बहस इत्यादी का होना वस्ल के असबाब: आपसी मिलाप और मैत्री के साधन तहरीर: लेख, कविता इत्यादि तक़रीर: भाषण महफ़िल-ए-नौ: नई महफ़िल रंग पर आना: आकर्षक या मोहक होना फ़सानों: बातें/ किस्से
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तीसरा बन्द:
तू अगर कोई मुदाब्बिर है तो सुन मेरी सदा | है दिलेरी दस्त-ए-अरबाब-ए-सियासत का असा
अर्ज़-ए-मतलब से झिझक जाना नहीं ज़ेबा तुझे | नेक है नियत अगर तेरी तो क्या परवा तुझे
बन्दा-ए-मौमिन का दिल बीम-ओ-रिया से पाक है
क़ुव्वत-ए-फरमा-रवा के सामने बेबाक है
आगे फ़रमाया कि मेरी आवाज़ सुनने वाले यदि तू कोई सियासी रहनुमा या लीडर है तो यह जान ले कि तेरा बहादुर होना बहुत ज़रूरी है. क्यूंकि यदि तू लोगो की नुमाइंदगी कर रहा है तो यह बेहद ज़रूरी है कि तू अपनी बात को ज़ालिम बादशाह के सामने निडर होकर रख सके. बहादुरी ही लीडरों की सबसे बड़ी शक्ति है. तू स्वार्थ की वजह से कायर न बन जाना. याद रखना कि यदि तेरी नियत स्वार्थ से पाक है तो तुझे कोई चिंता नहीं ! तू ही जीतने वाला है.
एक ईमान वाले का दिल दिखावे और डर से पाक होता है. वो दिखावा नहीं करता. और जो कुछ भी करता है वो रब की रज़ा की खातिर करता है. उसे सिर्फ रब का डर होता है जिसके आगे बादशाहों का डर कुछ नहीं. इसीलिए मौमिन इंसान बादशाह के सामने बेबाक बोलता है और हक़ बात बोलता है. यहाँ हज़रत इमाम हुसैन (रज़ी) का उदाहरण देना सबसे बहतर है जिन्होंने यज़ीद ज़ालिम के ज़ुल्म के आगे सर नहीं झुकाया और बेबाक रहे.
शब्दार्थ:
मुदाब्बिर: सियासी लीडर / राजनेता सदा: फ़रयाद / आग्रह दिलेरी: बहादुरी दस्त: हाथ अरबाब-ए-सियासत: सियासी कर्ता-धर्ता असा: हज़रत मूसा की दैवीय छड़ (यहाँ शक्ति से अभिप्राय है) अर्ज़-ए-मतलब: मतलब परस्ती / स्वार्थ झिझक जाना: कायर हो जाना ज़ेबा: शोभा परवा: परवाह बन्दा-ए-मौमिन: अल्लाह और हज़रत मुहम्मद पर ईमान रखने वाला बीम: डर रिया: दिखावा क़ुव्वत: ताक़त फरमा-रवा: बादशाह बेबाक: निडर
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चौथा बन्द:
हो अगर हाथों में तेरे ख़ामा-ए-मौजिज़ रक़म | शीशा-ए-दिल हो अगर तेरा मिसाल-ए-जाम-ए-जम
पाक रख अपनी ज़ुबां तलमीज़-ए-रहमानी है तू | हो न जाये देखना तेरी सदा बे-आबरू
सोने वालों को जगा दे शेर के ऐजाज़ से
ख़िरमन-ए-बातिल जला दे शोला-ए-आवाज़ से
आगे सर सय्यद की रूह कहती है कि सुनने वाले यदि तू कोई अदीब या साहित्यकार है तो मेरी बात ध्यान से सुन. यदि तू सबसे बहतर लिखता है, तेरे जैसा कोई नहीं है और तेरे दिल (की नज़र) में वो ताक़त है जो ज़माने के मौजूदा हालात को देखती-समझती है तो तुझे एक नसीहत की जाती है. तू अपनी ज़ुबान को हमेशा पाक रखना क्यूँकी दुनिया में तू ही है जो अल्लाह का शागिर्द है. तेरी लिखी बातों को "अल्लाह का इल्हाम (अवतरित बातें)" कहा जाता है. तेरी बात लोगों में बहुत आदरणीय होती है. यदि तू कुछ अशोभनीय बोल गया तो तेरे कलाम की इज्ज़त मिटटी में मिल जाएगी. इसलिए अपने बे-मिसाल शेरों से सोए हुए दिलों को जगा दे और बातिल ने जो खेती बोई थी उससे जो कुछ भी हासिल किया है उसके ढेर को अपनी इन्क़लाबी आवाज़ की गर्मी से जलाकर खाक कर दे !!
शब्दार्थ:
शब्दार्थ:
ख़ामा: क़लम मौजिज़ रक़म: ऐसा अदीब या साहित्यकार जिसकी तरह दूसरा न हो शीशा-ए-दिल: दिल का आईना जाम-ए-जम: बादशाह जमशेद का वो प्याला जिसमे वह दुनिया के हालात देख सकता था तलमीज़-ए-रहमानी: अल्लाह का शागिर्द है जो बहुत रहम दिल हो सदा: आवाज़ बे-आबरू: अमर्यादित/ बे-इज़्ज़त ऐजाज़: वो बात/ काम जिसे दूसरे नहीं कर सकते ख़िरमन: खेती के पक कर कट जाने पर हासिल हुई फसल (Post-Harvest Food etc.) बातिल: असत्य/ बुराई शोला-ए-आवाज़: आवाज़ की ज्वाला
आभार: www.allama.in
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